Friday, July 4, 2025
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बिहार और राष्ट्रपति शासन: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान संदर्भ

भूमिका
बिहार भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण राज्य है, जो अपनी राजनीतिक अस्थिरता और सामाजिक बदलावों के लिए जाना जाता है। भारत में राष्ट्रपति शासन एक संवैधानिक प्रक्रिया है, जिसे तब लागू किया जाता है जब किसी राज्य की सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में विफल हो जाती है। बिहार में भी कई बार राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है। इस लेख में बिहार में राष्ट्रपति शासन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, कारणों, प्रभावों और वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता का विश्लेषण किया जाएगा।


राष्ट्रपति शासन: एक संक्षिप्त परिचय

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था प्रदान करता है। जब किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाता है, तो केंद्र सरकार राज्य की निर्वाचित सरकार को भंग कर सकती है और वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर सकती है। इस दौरान, राज्य की कार्यकारी शक्ति राज्यपाल के माध्यम से राष्ट्रपति के हाथों में चली जाती है।

राष्ट्रपति शासन आमतौर पर निम्नलिखित परिस्थितियों में लगाया जाता है:

  1. संवैधानिक संकट – जब राज्य सरकार संविधान के अनुसार कार्य करने में असमर्थ हो।
  2. बहुमत का अभाव – यदि विधानसभा में सरकार बहुमत साबित करने में विफल हो।
  3. कानून-व्यवस्था की गंभीर स्थिति – जब राज्य में हिंसा या अराजकता की स्थिति हो।
  4. भ्रष्टाचार या कुप्रबंधन – जब राज्य सरकार जनहित में कार्य करने में पूरी तरह असफल हो।

बिहार में राष्ट्रपति शासन: ऐतिहासिक परिदृश्य

बिहार में अब तक कई बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया है। यह ज्यादातर राजनीतिक अस्थिरता और चुनावी गतिरोध के कारण हुआ है। आइए, बिहार में राष्ट्रपति शासन की प्रमुख घटनाओं पर एक नज़र डालते हैं।

1. 1968 – पहली बार राष्ट्रपति शासन

बिहार में पहली बार 29 जून 1968 को राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था। उस समय राज्य की राजनीतिक स्थिति अस्थिर थी और कोई भी दल सरकार बनाने में सक्षम नहीं था।

2. 1969-1970 – राजनीतिक अस्थिरता

बिहार में 22 जून 1969 से 16 फरवरी 1970 तक राष्ट्रपति शासन रहा। इस अवधि में सरकार बार-बार गिर रही थी, जिससे राजनीतिक अनिश्चितता बनी हुई थी।

3. 1972-1977 – आपातकाल का दौर

1972 में कांग्रेस पार्टी ने सरकार बनाई, लेकिन 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में “संपूर्ण क्रांति आंदोलन” शुरू हुआ। इस आंदोलन के कारण राज्य में अराजकता फैल गई। 1975 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया, जिससे बिहार की राजनीतिक स्थिति भी प्रभावित हुई। 30 अप्रैल 1977 को आपातकाल समाप्त होने के बाद बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाया गया।

4. 1980 – केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के कारण राष्ट्रपति शासन

1980 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने बिहार की सरकार को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लागू किया।

5. 1995-1999 – लालू प्रसाद यादव का युग और राजनीतिक संकट

1995 के चुनावों में लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने जीत हासिल की, लेकिन 1997 में जब लालू पर चारा घोटाले का आरोप लगा, तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद, राज्य में राजनीतिक अस्थिरता बनी रही और कई बार राष्ट्रपति शासन की नौबत आई।

6. 2005 – सबसे लंबा राष्ट्रपति शासन

बिहार में सबसे लंबा राष्ट्रपति शासन 7 मार्च 2005 से 24 नवंबर 2005 तक चला। फरवरी 2005 के चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। सरकार बनाने में असमर्थता के कारण राष्ट्रपति शासन लागू किया गया। बाद में नवंबर 2005 में हुए पुनः चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी।


बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू होने के प्रमुख कारण

  1. राजनीतिक अस्थिरता – बिहार में बार-बार सरकारों का गिरना और बहुमत साबित न कर पाना राष्ट्रपति शासन का मुख्य कारण रहा है।
  2. भ्रष्टाचार और घोटाले – बिहार में कई बड़े घोटाले हुए, जैसे चारा घोटाला, जिसके कारण सरकारों की साख गिरी और संवैधानिक संकट पैदा हुआ।
  3. कानून-व्यवस्था की खराब स्थिति – 1990 और 2000 के दशक में बिहार में अपराध दर बहुत अधिक थी, जिससे राज्य में शासन की विफलता देखी गई।
  4. जातीय संघर्ष और दंगे – बिहार में जातीय राजनीति और हिंसा एक बड़ी समस्या रही है, जिससे कई बार राष्ट्रपति शासन लगाने की नौबत आई।
  5. चुनावी गतिरोध – 2005 की तरह कई बार बिहार में त्रिशंकु विधानसभा बनी, जिससे सरकार गठन असंभव हो गया और राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा।

राष्ट्रपति शासन के प्रभाव

सकारात्मक प्रभाव:

  • शासन में स्थिरता – जब कोई पार्टी सरकार नहीं बना पाती, तो राष्ट्रपति शासन से प्रशासनिक स्थिरता आती है।
  • कानून-व्यवस्था में सुधार – केंद्र सरकार के हस्तक्षेप से पुलिस और प्रशासन अधिक प्रभावी हो जाता है।
  • घोटालों की जांच आसान – जब चुनी हुई सरकार हटती है, तो जांच एजेंसियां स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकती हैं।

नकारात्मक प्रभाव:

  • लोकतंत्र पर खतरा – बार-बार राष्ट्रपति शासन लगाना लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध जाता है।
  • स्थानीय समस्याओं की उपेक्षा – केंद्र सरकार को स्थानीय मुद्दों की समझ कम होती है, जिससे कई समस्याएं बनी रहती हैं।
  • राजनीतिक अस्थिरता बढ़ती है – जब चुनी हुई सरकार हटाई जाती है, तो जनता का विश्वास लोकतंत्र से उठ सकता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बिहार और राष्ट्रपति शासन

आज बिहार की राजनीति अपेक्षाकृत स्थिर है, लेकिन राजनीतिक संघर्ष और जातीय समीकरण अभी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अगर भविष्य में किसी भी कारण से सरकार बहुमत खो देती है या कोई बड़ा राजनीतिक संकट उत्पन्न होता है, तो राष्ट्रपति शासन फिर से लागू हो सकता है।

संभावनाएँ:

  • अगर बिहार में आगामी चुनावों में त्रिशंकु विधानसभा बनती है, तो राष्ट्रपति शासन की संभावना हो सकती है।
  • किसी बड़े घोटाले या कानून-व्यवस्था की गंभीर स्थिति में केंद्र सरकार हस्तक्षेप कर सकती है।
  • क्षेत्रीय दलों में गहरी खाई होने से राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है, जिससे राष्ट्रपति शासन की जरूरत पड़ सकती है।

निष्कर्ष

बिहार में राष्ट्रपति शासन का इतिहास बताता है कि यह ज्यादातर राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, चुनावी गतिरोध और कानून-व्यवस्था की समस्याओं के कारण लागू किया गया है। हालांकि, यह एक अस्थायी समाधान है और लोकतंत्र की स्थायित्व के लिए राज्य सरकारों को ही मजबूत किया जाना चाहिए। बिहार की राजनीति अभी भी कई चुनौतियों से जूझ रही है, और भविष्य में इसे और स्थिर बनाने के लिए आवश्यक सुधारों की जरूरत है।

क्या राष्ट्रपति शासन बिहार की समस्याओं का हल है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। समाधान राष्ट्रपति शासन नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों की जवाबदेही, प्रशासनिक सुधार और सुशासन है। बिहार को एक स्थिर और प्रगतिशील राज्य बनाने के लिए लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करना आवश्यक है।

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